Punit van- Special Prayers To Protect Of Forests : जहाँ सरकार करोडो रूपये खर्च करके वनों का संरक्षण नहीं कर पा रही है वही एक चार हज़ार साल पुरानी परम्परा ने पुरे भारत वर्ष में लाखों वनों का संरक्षण कर रखा है। वनों को संरक्षित रखने की यह परंपरा पुनीत वन परम्परा कहलाती है। इस परंपरा में एक निश्चित सीमा क्षेत्र वाले वन को पवित्र मानकर उसे पुनीत वन घोषित कर दिया जाता है। इस पुनीत वन का इतना महत्तव होता है की इस जंगल से पेड़ काटना तो दूर की बात, एक पत्ती तक बाहर नहीं ले जाई जा सकती है। यही नहीं इस जंगल में रहने वाले किसी जीव को भी नुकसान नहीं पहुंचाया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक़ पुरे भारत में करीब 3 लाख पुनीत वन हैं। हर पुनीत वन का एक देवी या देवता होता है।
हजारों साल पुरानी है ये परंपरा
करीब 4 हजार साल पहले मानव ने जानवरों को पालना सीखा। जब मानव एक जगह रहने लगा तो उसने जानवरों और पेड़-पौधों को पालना शुरू किया। इस तरह मानव का स्थानीय क्षेत्र से संबंध गहरे हो गए। मानव ने माना कि जिन पेड़-पौधों, जंगलों को वह पाल रहा है, उसी में उसके पूर्वज और देवी-देवताओं का वास है। इस तरह इन जंगलों की पूजा शुरू हो गई और जंगलों का संरक्षण शुरू हो गया। इन पुनीत वनों में मानव हस्तक्षेप न के बराबर होने पर जैव विविधता बच गई। तब से यह परंपरा लगातार चली आ रही है।
पुनीत वनों पर होती है लोगों की गहरी आस्था
भारत में हर राज्य में इस तरह की परंपरा है। जिन क्षेत्र में यह पुनीत वन होते हैं, वहां सामुदायिक निर्णय के बाद लोक देवी-देवताओं की पूजा उस जंगल में की जाती है। इन पुनीत वनों पर उस क्षेत्र के लोगों की गहरी आस्था होती है। न ही कोई वहां से पेड़ काट सकता है, न वहां रहने वाले किसी प्राणी को मार सकता है। यदि कोई उस जंगल को नुकसान पहुंचाता है तो उसके लिए दंड का प्रावधान भी होता है। यह दंड क्या होगा, यह उस क्षेत्र के लोग मिलकर तय करते हैं।
साल में एक बार पुनीत वनों के देवी-देवताओं की पूजा जरूर होती है
साल में एक बार पुनीत वनों के देवी-देवताओं की पूजा जरूर होती है। कई जगह दो या तीन बार भी होती है। इस पूजा में स्थानीय लोग जंगल के देवी-देवताओं से जंगल का क्षेत्र बढ़ने, जल स्त्रोत संरक्षण जैसी कई मन्नतें मांगते हैं।
जरूरत पड़ी तो देते हैं काले मुर्गे की बलि
हर क्षेत्र में पूजा की पद्धति अलग-अलग रहती है। पूजा के दौरान कई तरह के प्रसाद भी बांटे जाते हैं और यहीं से पता चलता है कि उस क्षेत्र के लोगों के लिए अगला साल कैसा रहेगा। इसके लिए अलग-अलग समाज के लोग अलग-अलग तरीका अपनाते हैं। मेघालय की खासी जनजाति मुर्गे की बलि देती है और बलि देने वाले मुर्गे की अतडिय़ों से पता लगाया जाता है कि अगला साल कैसा रहेगा? यदि कुछ बुरा होने का संकेत मिलता है तो एक काले मुर्गे की बलि और दी जाती है। आंतड़ी से शुभ-अशुभ कैसे पहचानते हैं, यह काफी गोपनीय होता है। इसी तरह उड़ीसा में कोंध आदिवासी चावल फेंककर आने वाले साल के बारे में पता लगाते हैं।
कोई भी अपना सकता है इस परंपरा को
सरकार के सैकड़ों करोड़ बजट के बाद भी जंगल को संरक्षित करने के सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ सके हैं जबकि पुनीत वन परंपरा के माध्यम से जीरो बजट में जंगल और जैव विविधता का संरक्षण किया जा सकता है। इस परंपरा को कोई भी अपना सकता है। इसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में रोज एक नया ग्रुप इसे अपनाने के लिए सामने आ रहा है।
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