Chanakya Biography in Hindi Part- 3
जब कौटिल्य का बचपन दम तोड़ने लगा
राक्षस के आदेश से आचार्य चणक व महामात्य शकटार को बंदी बना लिया गया। अंतर केवल इतना था कि चणक अकेले बंदी बनाए गए, जबकि शकटार परिवार सहित। जिस समय चणक बंदी बनाए गए, उस समय कौटिल्य घर पर न था। जब वह घर लौटा तो अपनी माँ को फूट-फूटकर रोते हुए पाया।
जब कौटिल्य ने माँ से रोने का कारण पूछा, तो उसने केवल इतना ही कहा- “तू यहां से भाग जा कौटिल्य। कहीं भी चला जा। राजसैनिक तुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे। ”
“परन्तु माँ ! मेरा दोष क्या है?” कौटिल्य ने पूछा।
“तेरा कोई दोष नहीं है पुत्र ! दोष तेरे भाग्य का है। तेरे पिता को देशद्रोही घोषित कर दिया गया है। एक देशद्रोही के पुत्र को कौन यहाँ शान्ति से जीने देगा। ”
“मैं कहीं नहीं जाऊंगा माँ! मैं यहीं रहूंगा। तुम्हारे पास। ”
“तुझे मेरी कसम है कौटिल्य। अपने पिता की कसम है। चला जा यहाँ से। यहाँ अब जीवन नहीं है। चारो ओर भयंकर मृत्यु छाई हुई है। ”
“मैं शकटार चाचा के पास चला जाऊं?”
“वो भी बंदी बना लिए गए है पुत्र ! उन्हें भी कारावास में डाल दिया गया है।
“और सुवासिनी?” कौटिल्य ने धड़कते हृदय से पूछा।
“वह भी। ”
“नहीं !”
“यह सोचने का समय नहीं है पुत्र ! भाग जा यहां से। ईश्वर तुम्हें दीर्घायु दे। ”
तब घर छोड़कर भागने पर विवश हो गया कौटिल्य, परन्तु जाता कहां? मगध की बाहरी सीमा पर जो वन था, वही चला गया। पूरा दिन वह वन में भटकता। कंद-मूल, फल खाता तथा नदी का पानी पीता। रात को एक पेड़ पर चढ़कर सो जाता, ताकि वन-प्राणी उसे किसी प्रकार की क्षति न पहुंचा सकें।
अंतिम भेट
राक्षस की उपस्थिति में चणक ने अपने मित्र शकटार से भेंट की। उस समय सुवासिनी भी वहीं थी। चणक को देखते ही उनसे जा लिपटी तथा रोने लगी।
“नहीं बेटी !” चणक उसे सांत्वना देते हुए बोले-“तुम्हें रोना नहीं चाहिए ! तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए की तुम्हारे ताउजी ने अत्याचार के सामने शीश नहीं झुकाया। ”
“नहीं ताउजी ! मैं आपको इस प्रकार बलिदान देते हुए नहीं देख सकती। ”
मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा बेटी ! समय आने पर चणक के रक्त की एक-एक बून्द से दस-दस चणक पैदा होंगे और फिर क्रान्ति ऐसे ही तो नहीं आ जाती। बलिदान तो देने ही पड़ते है। ”
परन्तु सुवासिनी का रोना बंद न हुआ। तब चणक शकटार से बोले -“अब तुम्ही समझाओ इसे। ”
“मैं इसे क्या समझाऊ ?” शकटार बोले-“मेरा तो स्वयं का धैर्य समाप्त हो चूका है। मन करता है, फूट-फूटकर रोने लगूं। ”
“इतना कमजोर न बनो शकटार। तुम्हें तो अभी बहुत कुछ करना है।”
” अब मैं कर ही क्या सकता हूँ?”
“मनुष्य को कभी निराश नहीं होना चाहिए मित्र। निराशा ही मृत्यु है। अच्छा चलता हुँ। सुना है, तुम्हारी भावज अब जीवित नहीं। कौटिल्य का भी कुछ पता नहीं। तुम्हारे सिवा अब था ही कौन, जिससे जीवन के अंतिम क्षणों में मिलता, इसलिए मिलने चला आया। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। ”
इसके बाद राक्षस के साथ लौट चले चणक। सुवासिनी अभी भी फूट-फूट कर रोए जा रही थी।
मैं घर नहीं जाउंगी
कौटिलाय को प्यास लगी थी। वह घने वृक्षों के झुरमुट से निकालकर नदी की और जा रहा था।
चारो और भयंकर सन्नाटा छाया हुआ था, जिसे रह-रहकर बिजली की कड़कड़ाहट भंग कर रही थी। वर्षा अभी-अभी रुकी थी। चारो और पृथ्वी पर कीचड़ फैला हुआ था।
एकाएक कौटिल्य के कदम जहाँ-के-तहाँ रुक गए। उसे किसी स्त्री के रोने का स्वर सुनाई दिया।
कौटिल्य आश्चर्य में भर गया। उसने आवाज़ की दिशा का अनुमान लगाया, फिर उधर ही चल पड़ा।
थोड़ी दूर जाने पर उसे स्त्री के रोने का स्वर स्पष्ट सुनाई देने लगा। इसके साथ एक पुरुष का स्वर भी उनके कानो में पड़ा। वह ध्यानपूर्वक उन स्वरों को सुनने लगा।
“नहीं… नही…!” स्त्री स्वर रोते हुए अचानक कह उठा_____”मैं घर नहीं जाउंगी। वहां रहने से तो अच्छा है कि मैं प्राण त्याग दूं।”
“तू प्राण त्याग देगी तो मेरा क्या होगा ?” पुरुष स्वर व्याकुल हो उठा।
“तो फिर, तू भी मेरे साथ प्राण त्याग दे। हम उस नीच और अत्याचारी राजा के राज्य में नहीं रहेंगे। वहां ब्रह्म-हत्या हुई है।”
“आचार्य चणक की मृत्यु नहीं हुई!” स्त्री स्वर चीख उठा___”उनकी हत्या हुई है। पापी राजा ने अपने हाथों से उसका सिर काटा है। वह सिर अभी भी राज्य के मुख्य चौराहे पर लटका पड़ा होगा। चणक की पत्नी की मृत्यु का उत्तरदायित्व वह पापी राजा ही है।”
कौटिल्य इससे अधिक कुछ न सुन सका। उसके सिर पर जैसे आकाश गिर पड़ा। पैरों के नीचे से जैसे पृथ्वी ही खिसक गयी। वह यूं हांफने लगा जैसे सैकड़ो मील की दौड़ लगाकर आया हो। कुछ क्षणों तक वह यूं ही खड़ा रहा, फिर कमान से छूटे तीर की तरह शहर के मुख्य चौराहे की ओर दौड़ लगा दी।
अंतिम संस्कार
आंधी-तूफान की चिंता किए बिना कौटिल्यदौड़ता-दौड़ता एक अज्ञात स्थान पर जा पहुंचा। पास ही गंगा बह रही थी। एक पेड़ के नीचे खड़े होकर कौटिल्य बिलख-बिलखकर रोने लगा। वह अपने पिता का केवल सिर ही प्राप्त कर सका था। पूरी देह नहीं,परन्तु माँ का तो कुछ भी नहीं प्राप्त कर सका था।
पता नहीं, माँ का देहांत कब हुआ था ? उसका अंतिम संस्कार किया जा चूका था या नहीं ? उसकी देह को कहीं राज्यकर्मी ही न ले गए हो।
कितना अभागा वह था। माँ-बाप को कितना गर्व था उस पर। कितनी आशाएं थी उससे, परन्तु सब धूल में मिल गई। वह उनकी कोई सेवा न कर सका। वह सेवा भी न कर सका जिसके किए हर माँ-बाप पुत्र की कामना करते है। अंतिम संस्कार की सेवा, जो पुत्र का एक प्रमुख कर्तव्य भी होता है।
वर्ष अभी भी हो रही थी। वह चाहता था शीघ्रातिशीघ्र अपने पिता के सिर का अंतिम संस्कार कर दे। यदि राज्य्कर्मियों ने उसे ढूंढ लिया तो वह इतना भी नहीं कर सकेगा। अंतिम संस्कार करने में सबसे अधिक कठिनाई थी सुखी लकड़ियाँ प्राप्त करने की। एक ऐसे स्थान की खोज करने की, जहां चिता जलाई जा सके।
पिता का सिर हाथ में उठाएं वह ऐसे ही किसी स्थान को खोजने लगा। ऐसा स्थान उसे बड़ी कठिनाई से मिला। वह स्थान एक पुराना श्मशान घाट था, जिसका प्रयोग तब नहीं होता था। वहां से उसे कुछ सुखी लकडिया तथा थोड़ा सा घास-फूस उपलब्ध हो गया।
उसने एक चिता तैयार की। चिता पर पिता का सर स्थापित किया। पत्थरों को घिसकर बड़े परिश्रम से अग्नि प्रकट की, फिर चिता को मुखाग्नि देते हुए उन श्लोको का उच्चारण किया, जो उसके पिता ने उसे सिखाये थे। छोटी सी चिता धूं-धूं करके जल उठी। कुछ ही समय बाद वहां रह गया राख का एक ढेर। उसने राख को एकत्रित किया। वहां उपेक्षित सी पड़ी एक मिटटी की हांड़ी में उसे भरा, फिर वहीं एक गड्डा खोदकर उसे दबा दिया।
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wisdom365 says
Thanks for sharing very useful knowledge