Urvashi Apsara ke Purva Janam Ki Kahani : प्राचीन काल में कश्मीर देश में देवव्रत नामक एक द्विज थे। उनके सुन्दर रूप वाली एक कन्या थी। जो मालिनी के नाम से प्रसिद्ध थी। द्विज ने उस कन्या का विवाह सत्यशील नामक सुन्दर बुद्धि मान द्विज के साथ कर दिया।
मालिनी कुमार्ग पर चलने वाली पुंश्चली होकर स्वच्छन्दतापूर्वक इधर-उधर रहने लगी। उसके घर में काम- काज के बहाने “उपपति ” रहा करता था । सभी जाति के मनुष्य जार के रूप में उसके यहाँ ठहरते थे । वह कभी पति की आज्ञा नही मानती थी। सदा पर पुरूष के साथ रंगरलियाँ मनाती थी ।
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इसी दोष के कारण उसके सब अंगों में कीडे पड गये थे। उन कीडों से उसकी नाक, जिह्वा और कानों का उच्छेद हो गया,स्तन तथा अंगुलियाँ गल गयीं। उसमें पंगुता आ गयी । इन सब क्लेशों के कारण उसकी मृत्यु हो गयी ।
तत्पश्चात् सौवीर देश में पद्मबन्धु नामक द्विज के घर में अनेक दुखों से घिरी हुई कुतिया हुई। उस समय भी उसके सिर में कीडे पड गये,और योनि में भी कीडे भरे रहते थे। इस तरह तीस वर्ष बीत गये।
एक दिन पद्मबन्धु का पुत्र गंगा में स्नान करके पवित्र हो भीगे वस्त्र से घर आया। उसने तुलसी की वेदी के पास जाकर अपने पैर धोये। दैव योग से वह कुतिया वेदी के नीचे सोई हुई थी। सूर्योदय से पहले का समय था,
ब्राह्मणकुमार के चरणोदक से वह नहा गयी और तत्काल उसके सारे पाप नष्ट हो गये । कुतिया को अपने पूर्व जन्म के दुराचरण पूर्ण वृतान्त याद आ गये। और वह वृतान्त कुतिया ने ब्राह्मण कुमार को सुनाये।
तब ब्राह्मण कुमार बोले- पति का अपराध करने वाली स्त्री सैकडों बार तिर्यग्योनि में और अरबों बार कीडे की योनि में जन्म लेती है।
यह सुनकर कुतिया बोली- दीनवत्सल! मैं आप के दरवाजे पर रहने वाली कुतिया हूँ । मुझ दीना के प्रति दया कीजिये। द्विजेन्द्र मैं आप को नमस्कार करती हूँ ।
कुतिया की विनती सुनकर ब्राह्मण कुमार के पिता पद्मबन्धु ने संकल्प किया- कुतिया ! ले, मैने द्वादशी का पुण्य तुझे दे दिया।
ब्राह्मण के इतना कहते ही कुतिया ने सहसा अपने प्राचीन शरीर का त्यागा कर दिया और दिव्य देह धारण कर दशों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई ब्राह्मण की आग्या से स्वर्गलोक चली गई ।
वहाँ महान सुखों का उपभोग करके इस पृथ्वी पर भगवान् नर-नारायण के अंश से वही कुतिया “उर्वशी” नाम से प्रकट हुई।
धन्य हैं श्री हरि धन्य हैं उनकी माया ।
मायापति की माया में “अजय” ब्रहमांड समाया ।।
आप की माया का कोई भेद न पाया ।
नैनों मे है छबी आप की दिव्य करो मम काया ।।
||हरि हर शरणं गच्छामि ||
आचार्य, डा.अजय दीक्षित
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