Hindi Story | सेठ माणिक शाह के पास अकूत धन-संपत्ति थी। देश भर में उनकी हुँडियाँ चलती थी। उनके इस समूचे ऐश्वर्य का वारिस उनका इकलौता पुत्र सुभद्र था। सेठ जी सुभद्र को प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। उनकी चाहत थी कि हर समय उनका पुत्र उनकी आँखों के सामने रहे। सुभद्र गुणशील और धर्मपरायण तो था ही, पर साथ ही वह विवेकवान् एवं अटूट पुरुषार्थी भी था। उसमें नित नया और कुछ विशेष करने की उमंग थी। एक दिन उसने अपने पिता से समुद्र यात्रा करके विदेश में व्यापार करने की अनुमति माँगी। सेठ माणिक शाह पुत्र-वियोग की कल्पना मात्र से दुःखी हो गए। वह आर्द्र स्वर में सुभद्र को समझाने लगे, बेटा! तुझे कुछ करने की जरूरत ही क्या है? भला अपने घर में कौन-सी कमी है, जो तू समुद्री यात्रा का खतरा उठाना चाहता है।
सुभद्र बड़ा उत्साही और परिश्रमी था। उसने विनम्रतापूर्वक कहा, पिताजी! यदि मैं हाथ-पर-हाथ धरे बैठा रहूँ और आप स्नेहवश कुछ न भी कहें, तो भी दुनिया मुझे कपूत ही कहेगी। बिना कमाए खाने की आदत पड़ जाने से मैं आलसी और मंदबुद्धि तो बनूँगा ही, साथ ही मुझमें जो कुछ शरीरबल, मनोबल या बुद्धिबल है, उसका उपयोग न करने के कारण उन्हें जंग लग जाएगी। वे तीनों क्षीण हो जाएंगे और फिर भावनाएँ तो शरीर से परे हैं। आप से दूर रहने पर भी मेरा हृदय आपके स्नेह से भीगा रहेगा। सभी दृष्टिकोण से पुरुषार्थ ही श्रेष्ठ हैं। इसलिए आप कृपा करें मुझ समुद्र पार करके व्यापार करने की आज्ञा प्रदान कीजिए।
अपने पुत्र का साहस, कर्त्तव्यनिष्ठा देखकर माणिक शाह को भी प्रसन्नता हुई। वह कहने लगे, बेटा! मैं तुम्हारे उत्तर से संतुष्ट हूँ। यद्यपि पिता का हृदय, अपने पुत्र को दूर भेजना नहीं चाहता, परन्तु मैं तुम्हारे विकास, रुचि और उत्साह को रोकना नहीं चाहता। पिता की कीर्ति और संपत्ति में वृद्धि करना श्रेष्ठ पुत्र का कर्त्तव्य है। तुम इसी सद्भावना के साथ जा रहे हो। अतएव खुशी के साथ जाओ, मेरा भरपूर आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
माणिक शाह ने अपने पुत्र के लिए जहाज तैयार करवाया। समुद्री यात्रा में जो भी वस्तुएँ और उपकरण आवश्यक होते हैं, वे सब-के-सब उन्होंने जहाज में रखवा दिए। उन्होंने सुभद्र को यह भी भली प्रकार समझा दिया कि समुद्री यात्रा में इन सबका उपयोग किस प्रकार किया जाता है। उन्होंने अपने पुत्र को भली प्रकार बताया कि समुद्री तूफान में जहाज जब घिर जाता है, तो उसे क्या करना चाहिए। सारी नसीहतें देकर उन्होंने परिवार के साथ सुभद्र को विदाई दी।
जलयान अपनी यात्रा पर चल पड़ा। जब यह जलयान बीच समुद्र में पहुँचा तो अचानक भीषण तूफान उठा खड़ा हुआ। नाविकों के भरपूर प्रयत्न के बावजूद जहाज के डूब जाने की स्थिति बन आई। निराश नाविकों ने जवाब दे दिया कि अब हमारा बस नहीं चलता, जहाज थोड़ी ही देर में डूबने वाला है। जिसे अपने तौर पर बचने का जो भी उपाय सूझे, वह करे।
सुभद्र विवेकवान् था। वह इस आसन्न विपत्ति के बीच में घबराया नहीं। पहले वह शौचादि से निवृत्त हुआ, अपना पेट साफ किया। तत्पश्चात् उसने ऐसे पदार्थ खाए, जो वजन में हल्के किन्तु अधिक समय तक शक्ति प्रदान करने वाले थे। जिससे समुद्र के खारे पानी का प्रभाव न हो। फिर शरीर से चिपका हुआ चमड़े का कपड़ा पहना, जिससे समुद्री जल-जंतु हानि न पहुँचा सके।
इतनी सारी तैयारी करके वह एक लकड़ी का तख्ता लेकर समुद्र में कूद पड़ा। उस तख्ते के सहारे किनारे तक पहुँच जाने के उद्देश्य से वह तैरने लगा। सुभद्र ने अपने विवेक से तत्काल यह निर्णय कर लिया कि इस जहाज की अपेक्षा जीवन कहीं अधिक मूल्यवान् है। विवेक जाग्रत रहे तो कोई-न-कोई रक्षा का उपाय किया जा सकता है। कायरों की तरह इस महा विपत्ति के सामने घुटने टेकने से अच्छा है कि बहादुरी के साथ संघर्ष करते हुए मरा जाए। यद्यपि इस विशाल समुद्र को भुजाओं से तैरकर पार करना दुष्कर है, लेकिन प्राण छूटने तक हाथ-पाँव हिलाते हुए बहादुरों की मौत तो मरा ही जा सकता है।
श्रेष्ठी पुत्र सुभ्रद तख्ते के सहारे हाथ-पैर मारता हुआ समुद्र में बह रहा था। उस समय समुद्र के अधिदेवता उसके पुरुषार्थ को देखकर सोचने लगे, मृत्यु इस युवक के सामने मुँह फाड़े खड़ी है। फिर भी न जाने क्यों यह समुद्र को भुजाओं से पार करने की व्यर्थ चेष्टा कर रहा है? देव ने उससे पूछा, युवक! व्यर्थ परिश्रम करने वाला मूर्ख कहलाता है। समुद्र को तैरकर पार करना किसी भी तरह संभव नहीं है, फिर तूफान के समय यह मौत के साथ खेलने के समान है। अतः जब मौत शीघ्र ही आनी निश्चित है, तब तुम यह बेकार का श्रम क्यों कर रहे हो। अच्छा यही है कि अपने आखिरी समय में तुम भगवान् का नाम लो।
परन्तु सुभद्र इस निराशायुक्त सलाह को सुनकर भी हताश नहीं हुआ। उसने उस विकट परिस्थिति में भी थकी-सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, क्या तुम नहीं जानते, हमारे भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, ‘मामनुस्मर युध्य च’ अर्थात् मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो। फिर भी आप हमें यह सलाह देने वाले कौन है? इस प्रश्न के जवाब में समुद्र के अधिदेवता कहने लगे, मैं समुद्र का अधिदेव हूँ।
सुभद्र बोला, आप देवता होकर भी क्या हम मनुष्यों से भी गए बीते हैं। जो पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करने के बजाय हमें पुरुषार्थहीन होकर डूब मरने का उपदेश देते हैं। अच्छा हो कि आप मुझे पुरुषार्थ करने दें। मन में भगवत् स्मरण एवं शरीर से अटूट श्रम, यही मेरा सिद्धाँत है।
समुद्र के अधिदेवता सुभद्र के इस उत्तर से प्रभावित हुए। वह सोचने लगे, ऐसे विकट समय में भी इसने मुझसे सहायता नहीं माँगी। यह अपने पुरुषार्थ में रत और निर्भय है। फिर भी उन्होंने कुछ और परीक्षा लेनी चाही। इसी उद्देश्य से उन्होंने कहा, युवक! क्या तुम इतना भी नहीं जानते, यहाँ परिणाम की कोई संभावना न हो, वहाँ प्रयास पुरुषार्थ सभी बेकार होते हैं।
सुभद्र कहने लगा, हे देव! पुरुषार्थ कभी भी बेकार नहीं होता। रही बात मेरे पुरुषार्थ की, सो इसका पहला फल तो यही है कि इसके द्वारा मेरी बुद्धि और शक्ति का सदुपयोग होगा। दूसरा फल, आपका दर्शन-लाभ है। यदि मैं जहाज के डूबने के साथ ही डूब मरता, तो न तो मैं अपनी बौद्धिक एवं शारीरिक शक्ति का प्रयोग कर पाता और न ही आपके दर्शन होते। अतः मेरा पुरुषार्थ व्यर्थ तो नहीं है। सुभद्र का उत्तर सुनकर प्रसन्न हुए देवता ने पूछा, तो फिर तुमने मुझसे रक्षा करने की प्रार्थना क्यों नहीं की?
सुभद्र बोला, क्योंकि मैं जानता हूँ कि देवता कभी अपनी प्रार्थना करवाते नहीं है। वे तो सदा अपने कर्तव्य पालन में रत व्यक्ति की स्वयमेव सहायता करते हैं। उस पर प्रसन्न होते हैं। जीवन में अपने कर्त्तव्यों का अच्छी तरह किया गया पालन ही श्रेष्ठतम प्रार्थना हैं यदि मेरे द्वारा प्रार्थना करने पर आप मुझे बचाते, तो आपका गौरव कम हो जाता। मेरी प्रार्थना के बिना ही आप जो उपकार करेंगे, उससे आपके उपकार का मूल्य बढ़ जाएगा।
सुभद्र की बात ने समुद्र के अधिदेवता को प्रसन्न कर दिया। उसने अपनी सहायता से उसे किनारे पहुँचा दिया। और फिर उसे विदा करते हुए कहा, मानवी पुरुषार्थ के चरम बिंदु पर देवकृपा स्वयं ही अवतरित होने के लिए विवश होती है। निश्चित ही तुम जैसा धीर, गंभीर और पुरुषार्थी मनुष्य देवकृपा को स्वतः ही अपने पा आकर्षित कर सफलता पा लेता है और यही हुआ। सुभद्र एक सफल धनवान के रूप में धन अर्जित कर लौटा।
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