Rohini Vrat Katha In Hindi | Rohini Vrat Udyapan Vidhi | Rohini Vrat Vidhi In Hindi | रोहिणी व्रत का जैन धर्माविलंबियों में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। 27 नक्षत्रों में से रोहिणी भी एक है। जब सूर्योदय के बाद रोहिणी नक्षत्र प्रबल होता है, उस दिन रोहिणी व्रत किया जाता है। पुरे साल भर में कुल 12 रोहिणी व्रत आते है। सामान्यतौर पर रोहिणी व्रत को 3, 5 या 7 नियमित सालों के लिए किया जाता है। लेकिन अक्सर लोग सलाह देते है की रोहिणी व्रत केवल 5 साल या 5 महीने ही करना चाहिए। इसके बाद व्रत का उद्यापन कर देना चाहिए।
जैन धर्म में व्रतों को आत्मशुद्धि का सबसे अच्छा उपाय माना जाता है, जो आत्मा के विकारों को दूर कर कर्म बंध से छुटकारा दिलाने में सहायक होते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह व्रत महिलाओं द्वारा अपने पति की लम्बी उम्र के लिए किया जाता है। साथ ही मां रोहिणी जातक के घर से कंगाली को दूर भगाकर सुख एवं समृद्धि की वर्षा करें, ऐसी कामना भी की जाती है। व्रत की पूजा के दौरान जातक मां से यह प्रार्थना करता है उसके द्वारा की गई सभी गलतियों को वे माफ करें और उसके जीवन में बने सभी कष्टों का हरण करें। इस व्रत के दौरान पूरे दिन भूखा रहना होता है।
रोहिणी व्रत कथा | Rohini Vrat Katha In Hindi
Rohini Vrat Katha | प्राचीन समय में चंपापुरी नामक नगर में राजा माधवा अपनी रानी लक्ष्मीपति के साथ राज करते थे, उनके सात पुत्र एवं एक रोहिणी नाम की पुत्री थी। एक बार राजा ने निमित्तज्ञानी से पूछा, कि मेरी पुत्री का वर कौन होगा ? उन्होंने कहा, कि हस्तिनापुर के राजकुमार अशोक के साथ तेरी पुत्री का विवाह होगा।
यह सुनकर राजा ने स्वयंवर का आयोजन किया, जिसमें कन्या रोहिणी ने राजकुमार अशोक के गले में वरमाला डाली और उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ। एक समय हस्तिनापुर नगर के वन में श्री चारण मुनिराज आये, राजा अपने प्रियजनों के साथ उनके दर्शन के लिए गया और प्रणाम करके धर्मोपदेश को ग्रहण किया। इसके पश्चात् राजा ने मुनिराज से पूछा, कि मेरी रानी इतनी शांतचित्त क्यों है ?
तब गुरूवर ने कहा, कि इसी नगर में वस्तुपाल नाम का राजा था और उसका धनमित्र नामक एक मित्र था। उस धनमित्र की दुर्गंधा कन्या उत्पन्न हुई। धनमित्र को हमेशा चिंता रहती थी, कि इस कन्या से कौन विवाह करेगा, धनमित्र ने धन का लोभ देकर अपने मित्र के पुत्र श्रीषेण से उसका विवाह कर दिया। लेकिन अत्यंत दुर्गंध से पीडि़त होकर वह एक ही मास में उसे छोड़कर कहीं चला गया।
इसी समय अमृतसेन मुनिराज विहार करते हुए नगर में आये, तो धनमित्र अपनी पुत्री दुर्गंधा के साथ वंदना करने गया और मुनिराज से पुत्री के भविष्य के बारे में पूछा। उन्होंने बताया, कि गिरनार पर्वत के निकट एक नगर में राजा भूपाल राज्य करते थे। उनकी सिंधुमती नाम की रानी थी।
एक दिन राजा रानी सहित वनक्रीड़ा के लिए चले, सो मार्ग में मुनिराज को देखकर राजा ने रानी से घर जाकर मुनि के लिए आहार व्यवस्था करने को कहा। राजा की आज्ञा से रानी चली तो गई, परंतु क्रोधित होकर उसने मुनिराज को कडुवी तुम्बीका आहार दिया, जिससे मुनिराज को अत्यंत वेदना हुई और तत्काल उन्होंने प्राण त्याग दिये।
जब राजा को इस विशेष में पता चला, तो उन्होंने रानी को नगर में बाहर निकाल दिया और इस पाप से रानी के शरीर में कोढ़ उत्पन्न हो गया। अत्यधिक वेदना व दुख को भोगते हुए वो रौद्र भावों से मर के नर्क में गई। वहाँ अनन्त दुखों को भोगने के बाद पशु योनि में उत्पन्न और फिर तेरे घर दुर्गंधा कन्या हुई।
यह पूर्ण वृतांत सुनकर धनमित्र ने पूछा – कोई व्रत विधानादि धर्मकार्य बताइये जिससे यह पातक दूर हो, तब स्वामी ने कहा – सम्यग्दर्शन सहित रोहिणी व्रत पालन करो, अर्थात् प्रति मास में रोहिणी नामक नक्षत्र जिस दिन आये, उस दिन चारों प्रकार के आहार का त्याग करें और श्री जिन चैत्यालय में जाकर धर्मध्यान सहित सोलह प्रहर व्यतीत करें अर्थात् सामायिक, स्वाध्याय, धर्मचर्चा, पूजा, अभिषेक आदि में समय बितावे और स्वशक्ति दान करें। इस प्रकार यह व्रत 5 वर्ष और 5 मास तक करें।
दुर्गंधा ने श्रद्धापूर्वक व्रत धारण किया और आयु के अंत में संयास सहित मरण कर प्रथम स्वर्ग में देवी हुई। वहाँ से आकर तेरी परमप्रिया रानी हुई। इसके बाद राजा अशोक ने अपने भविष्य के बारे में पूछा, तो स्वामी बोले – भील होते हुए तूने मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया था।
सो तू मरकर नरक गया और फिर अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ एक वणिक के घर जनम लिया, सो अत्यंत घृणित शरीर पाया, तब तूने मुनिराज के उपदेश से रोहिण व्रत किया। फलस्वरूप स्वर्गों में उत्पन्न होते हुए, यहाँ अशोक नामक राजा हुआ।
इस प्रकार राजा अशोक और रानी रोहिणी, रोहिणी व्रत के प्रभाव से स्वर्गादि सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त हुए. इसी प्रकार अन्य जीव भी श्रद्धासहित यह व्रत पालन करेंगे , तो वे भी उत्तमोत्तम सुख पाएंगे। Rohini Vrat Katha
इस व्रत के उद्यापन के लिए छत्र, चमर, ध्वजा, पाटला आदि उपकरण मंदिर में चढ़ाएं, साधुजनों व सधर्मी तथा विद्यार्थियों को शास्त्र दें, वेष्टन दें, चारों प्रकार का दान दें और खर्च करने की शक्ति न हो तो दूना व्रत करें। Rohini Vrat Katha
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