चाणक्य नीति , लगभग 2400 वर्ष पूर्व नालंदा विश्विधालय के महान आचर्य चाणक्य द्वारा लिखित एक महान ग्रन्थ है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। चाणक्य नीति में कुल सत्रह अध्याय है। यहाँ प्रस्तुत है चाणक्य नीति का पांचवा अध्याय।
Chanakya Neeti – Fourth Chapter (चाणक्य नीति – पांचवा अध्याय)
1: स्त्रियों का गुरु पति है। अतिथि सबका गुरु है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का गुरु अग्नि है तथा चारों वर्णो का गुरु ब्राह्मण है।
2: जिस प्रकार घिसने, काटने, आग में तापने-पीटने, इन चार उपायो से सोने की परख की जाती है, वैसे ही त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चारों से मनुष्य की पहचान होती है।
3: भय से तभी तक डरना चाहिए, जब तक भय आए नहीं। आए हुए भय को देखकर निशंक होकर प्रहार करना चाहिए, अर्थात उस भय की परवाह नहीं करनी चाहिए।
4: एक ही माता के पेट से और एक ही नक्षत्र में जन्म लेने वाली संतान समान गुण और शील वाली नहीं होती, जैसे बेर के कांटे।
5: जिसका जिस वस्तु से लगाव नहीं है, उस वस्तु का वह अधिकारी नहीं है। यदि कोई व्यक्ति सौंदर्य प्रेमी नहीं होगा तो श्रृंगार शोभा के प्रति उसकी आसक्ति नहीं होगी। मूर्ख व्यक्ति प्रिय और मधुर वचन नहीं बोल पाता और स्पष्ट वक्ता कभी धोखेबाज, धूर्त या मक्कार नहीं होता।
6: मूर्खो के पंडित, दरिद्रो के धनी, विधवाओं की सुहागिनें और वेश्याओं की कुल-धर्म रखने वाली पतिव्रता स्त्रियां शत्रु होती है।
7: आलस्य से (अध्ययन न करना) विध्या नष्ट हो जाती है। दूसरे के पास गई स्त्री, बीज की कमी से खेती और सेनापति के न होने से सेना नष्ट हो जाती है।
8: विध्या अभ्यास से आती है, सुशील स्वभाव से कुल का बड़प्पन होता है। श्रेष्ठत्व की पहचान गुणों से होती है और क्रोध का पता आँखों से लगता है।
9: धर्म की रक्षा धन से, विध्या की रक्षा निरन्तर साधना से, राजा की रक्षा मृदु स्वभाव से और पतिव्रता स्त्रियों से घर की रक्षा होती है।
10: वेद पांडित्य व्यर्थ है, शास्त्रों का ज्ञान व्यर्थ है, ऐसा कहने वाले स्वयं ही व्यर्थ है। उनकी ईर्ष्या और दुःख भी व्यर्थ है। वे व्यर्थ में ही दुःखी होते है, जबकि वेदों और शास्त्रों का ज्ञान व्यर्थ नहीं है।
11: दरिद्रता का नाश दान से, दुर्गति का नाश शालीनता से, मूर्खता का नाश सद्बुद्धि से और भय का नाश अच्छी भावना से होता है।
12: काम-वासना के समान दूसरा रोग नही, मोह के समान शत्रु नहीं, क्रोध के समान आग नहीं और ज्ञान से बढ़कर सुख नहीं।
13: मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। वह अकेला ही अपने अच्छे-बुरे कर्मो को भोगता है। वह अकेला ही नरक में जाता है परम पद को पाता है।
14: ब्रह्मज्ञानियो की दॄष्टि में स्वर्ग तिनके के समान है, शूरवीर की दॄष्टि में जीवन तिनके के समान है, इंद्रजीत के लिए स्त्री तिनके के समान है और जिसे किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, उसकी दॄष्टि में यह सारा संसार क्षणभंगुर दिखाई देता है। वह तत्व ज्ञानी हो जाता है।
15: विदेश में विध्या ही मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोगियों के लिए औषधि मित्र है और मरते हुए व्यक्ति का मित्र धर्म होता है अर्थात उसके सत्कर्म होते है।
16: समुद्र में वर्षा का होना व्यर्थ है, तृप्त व्यक्ति को भोजन करना व्यर्थ है, धनिक को दान देना व्यर्थ है और दिन में दीपक जलाना व्यर्थ है।
17: बादल के जल के समान दूसरा जल नहीं है, आत्मबल के समान दूसरा बल नहीं है, अपनी आँखों के समान दूसरा प्रकाश नहीं है और अन्न के समान दूसरा प्रिय पदार्थ नहीं है।
18: निर्धन धन चाहते है, पशु वाणी चाहते है, मनुष्य स्वर्ग की इच्छा करते है और देवगण मोक्ष चाहते है।
19: सत्य पर पृथ्वी टिकी है, सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से वायु बहती है, संसार के सभी पदार्थ सत्य में निहित है।
20: लक्ष्मी अनित्य और अस्थिर है, प्राण भी अनित्य है। इस चलते-फिरते संसार में केवल धर्म ही स्थिर है।
21: पुरूषों में नाई धूर्त होता है, पक्षियों में कौवा, पशुओं में गीदड़ और स्त्रियों में मालिन धूर्त होती है।
22: मनुष्य को जन्म देने वाला, यज्ञोपवीत संस्कार कराने वाला पुरोहित, विध्या देने वाला आचार्य, अन्न देने वाला, भय से मुक्ति दिलाने वाला अथवा रक्षा करने वाला, ये पांच पिता कहे गए है।
<——चाणक्य नीति – चौथा अध्याय चाणक्य नीति – छठवां अध्याय——>
नोट – चाणक्य द्वारा स्त्री विशेष और जाती विशेष के लिए कह गए कुछ सूत्र वर्तमान समय के सन्दर्भ में इतने सही प्रतीत नहीं होते है, पर सम्पूर्ण चाणक्य नीति पाठकों के लिए उपलब्ध कराने के उद्देशय से हमने उनका यहां प्रकाशन किया है।
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