Guru Purnima | आदिकाल से ही भारत में गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही है। इसका वर्णन किए बिना आध्यात्मिक साधना प्रसंग एवं संस्कृति का प्रकरण अधूरा रह जाता है। गुरु-शिष्य परंपरा ही आदिकाल से ज्ञान-संपदा का संरक्षण कर उसे श्रुति के रूप में क्रमबद्ध करती आई है। भारत को जगद्गुरु की उपमा इस कारण ही दी जाती रही है कि उसने विश्व-मानवता का न केवल मार्गदर्शन किया, अपितु ब्राह्मणत्व के आदर्शों को जीवन में उतार कर औरों के लिए वह प्रेरणा स्रोत बना। गुरु व शिष्य के परस्पर महान् संबंधों एवं समर्पण भाव द्वारा अपने अहंकार को गलाकर ज्ञान-प्राप्ति की महत्ता का विवरण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर मिलता है।
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गुरु को मानवी चेतना का मर्मज्ञ माना गया है। वह शिष्य की चेतना में उलट-फेर करने में समर्थ होता है। गुरु का हर आघात शिष्य के अहंकार पर होता है तथा वह यह प्रयास करता है कि किसी भी प्रकार से डाँट से, पुचकार से, विभिन्न शिक्षणों द्वारा वह अपने समर्पित शिष्य के अहंकार को धोकर, साफ कर उसे निर्मल बना दे।
प्राचीनकाल में गुरु के सान्निध्य में रहकर शिष्य साधना का तेजस्वी जीवन बिताते थे। तपोवेष्ठित होने से उनका शरीर स्वर्ण जैसा दैदीप्यमान् होता था। संसार की कठिनाइयों से संघर्ष करने की उनमें शक्ति होती थी। वार्तलाप, विवेचन, विश्लेषण और विचार-विनिमय के द्वारा उनमें गंभीर चिंतन की प्रवृत्ति जागती थी। साधना-स्वाध्याय के सम्मिश्रण से उनको आत्मज्ञान की अनुभूति हो जाती थी।
विद्यार्थी केवल गुण-पुँज या ज्ञान-पुँज ही नहीं, शक्ति-पुँज होकर भी निकलते थे। फलस्वरूप उन्हें भौतिक सुखों की कोई आकाँक्षा नहीं होती थी। जब वे अधिकार नहीं कर्त्तव्य माँगते थे। सेवा को वे व्रत समझते थे। साहस और कर्मठता उनमें कूट-कूटकर भरी होती थी। मनुष्य शरीर के रूप में उनमें स्वयं देवत्व निवास करता था। ऐसे मेधावी पुरुषों से यह भारतभूमि भरी-पूरी थी। तभी यहाँ सुख और समृद्धि की वर्षा हुआ करती थी।
वस्तुतः गुरु-शिष्य संबंधों का आध्यात्मिक स्तर उच्चस्तरीय आदान-प्रदान का होता है। शिष्य अपनी सत्ता के अहं को गुरु चरणों में समर्पित करता है। गुरु शक्तिपात द्वारा अपनी अनुकंपा द्वारा उसे ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी बनाता व जीवन मुक्त कर देता है। इन संबंधों को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आत्मिक चार प्रकार का बताया गया है। लोकाचार में प्रथम तीन प्रकार के संबंध तो कहीं भी, किसी से भी स्थापित हो सकते हैं, किंतु सिर्फ गुरु से ही आत्मिक स्तर के संबंधों की संभावना है।
हमारी आध्यात्मिक परंपरा गुरु प्रधान ही रही है। इसी परंपरा के कारण साधना-पद्धतियों का सफल प्रयोग भी हुआ है। सदा से गुरुजनों ने इन्हें अपने जीवन में प्रयोग किया है तथा सफलता पाने पर सुपात्र साधकों के ऊपर रिसर्च लेबोरेट्री की तरह परीक्षण किया है। उन्हें श्रेष्ठ देवमानव बनाने का प्रयास किया है। गुरु-शिष्य परंपरा ने ही इतने नररत्न इस देश को दिए हैं, जिससे हम सब स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
जनार्दन पंत के शिष्य एकनाथ, गहिनीनाथ के शिष्य निवृत्तिनाथ, निवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानेश्वर, स्वामी निगमानंद के शिष्य योगी अनिर्वाण, गोविंदपाद के शिष्य शंकराचार्य, शंकरानंद के शिष्य विद्यारण्य, कालूराम के शिष्य कीनाराम, भगीरथ स्वामी के शिष्य तैलंग स्वामी, ईश्वरपुरी के शिष्य महाप्रभु चैतन्य, पूर्णानंद के शिष्य विरजानंद, विरजानंद के शिष्य दयानंद, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवेकानंद व उनकी शिष्या निवेदिता, प्राणनाथ महाप्रभु के शिष्य छत्रसाल, समर्थ रामदास के शिष्य शिवाजी, चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त, कबीर के शिष्य रैदास, दादू के शिष्य रज्जब, विशुद्धानंद के शिष्य गोपीनाथ कविराज, पतंजलि के शिष्य पुष्यमित्र तथा बंधुदत्त के शिष्य कुमारजीव ऐसे कुछ नाम हैं, जो इस परंपरा में देवसंस्कृति के पन्नों में पढ़े जा सकते हैं व जिनका जीवन उनके समर्पण भाव से लेकर गुरु के आत्मभाव के प्रसंग अपने आप में अद्भुत हैं। युगों-युगों तक ये प्रसंग आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधकों को प्रेरणा देते रहेंगे।
ज्ञानवान् तथा बुद्धिमान् आचार्यों के मार्गदर्शन में रहकर जीवन की सर्वांगपूर्ण शिक्षा इस देश के नागरिकों ने पाई थी, इसी से वे अपने ज्ञान, संस्कृति और सभ्यता को प्रकाशित रख सके। गुरुकुलों के रूप में न सही, उतने व्यापक क्षेत्र में भी भले ही न हो, किंतु यह परंपरा अभी पूर्ण रूप से मृत नहीं हुई है। आज भी ब्रह्मविद्या के जानकार आचार्य और ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ के जिज्ञासु शिष्य यहाँ विद्यमान हैं, किंतु उनकी संख्या इतनी कम है कि वे किसी तरह लोक-जीवन में प्रकाश उत्पन्न नहीं कर पा रहे। फिर भी संतोष यह है कि ‘गुरु गौरव’ अभी भी यहाँ सुरक्षित है और उसका पूर्ण विकास भी संभव है।
शिष्य के संबंध में उपनिषद्कार कहता है “समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठ” हाथ में समिधा लेकर शिष्य विनम्र भाव से श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाए। समिधा क्यों? समिधा अग्नि पकड़ती है। गुरु ज्ञान की ज्योति के रूप में जीती-जागती व स्वयं को उस अग्नि का स्पर्श कर देगा, तो ज्ञान की अग्नि में तपकर वह भी ज्ञान का प्रकाश-विस्तार करने वाले तंत्र के रूप में विकसित होगा।
भारतीय संस्कृति में श्रद्धा, जो शिष्य में गुरु के प्रति होनी चाहिए, की बड़ी तर्कसम्मत वैज्ञानिक व्याख्या स्थान-स्थान पर की गई है। जब श्रेष्ठ गुरु के प्रति समर्पण होता है तो व्यक्ति तत्सम हो जाता है। इस समर्पण से उसे गुरु व भगवान् दोनों एक साथ मिल जाते हैं। श्री रामकृष्ण कहते थे, सामान्य गुरु कान फूँकते हैं, अवतारी महापुरुष-सद्गुरु प्राण फूँकते हैं, ऐसे सद्गुरु का स्पर्श व कृपादृष्टि ही पर्याप्त है।
वास्तविकता यही है कि समर्पण भाव से गुरु के निर्देशों का परिपालन करने वालों को जी भरकर गुरु के अनुदान मिले हैं। श्रद्धा की परिपक्वता, समर्पण की पूर्णता शिष्य में अनंत संभावनाओं के द्वार खोल देती है। उसके सामने देहधारी गुरु की चेतना की रहस्यमयी परतें खुलने लगती हैं। इनका ठीक-ठीक खुलना शास्त्रीय भाषा में गुरु के दक्षिणा मूर्ति रूप का प्राकट्य है। जो यह रूप समझ सका, परावाणी को सुन सका, उसे स्थूल का अभाव भी अभाव नहीं प्रतीत होगा। गुरु का यह रूप जान लेने पर मौन व्याख्या शुरू हो जाती है। हृदय में निःशब्द शक्ति का प्रस्फुटन होने लगता है। प्रश्न जन्म लेने से पूर्व ही उत्तरित हो जाते हैं। महाशून्य से उत्सर्जित चित्तशक्ति का निर्झर खुल जाता है।
आज राष्ट्र को ज्ञानवान्, प्रकाशवान् तथा शक्तिवान् बनाने के लिए चिर प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा की पुनरावृत्ति की निताँत आवश्यकता है। इसके बिना शाश्वत आनंद की अनुभूति तो दूर, शाँतिमय जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसमें कुछ देर भले ही लगे, किंतु आत्मा की ज्ञान-पिपासा को अधिक दिन तक भुलाया नहीं जा सकता। गुरु पर्व ही उसे जगाने का शुभ मुहूर्त है।
साभार – अखंड ज्योति पत्रिका जुलाई २००१
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